राजस्थान की जनजातियाँ


Ø राजस्थान में सर्वाधिक जनजातियाँ उदयपुर में निवास करती है., सबसे कम बीकानेर में
Ø जिले की कुल जनसंख्या में प्रतिशत के हिसाब से सर्वाधिक जनजातियाँ बाँसवाडा जिले में निवास करती है. तथा न्यूनतम नागौर में.
Ø सबसे शिक्षित जनजाति मीणा.

  1. मीणा - जयपुर, स.माधोपुर, अलवर, उदयपुर, चित्तौडगढ, डूंगरपुर, कोटा, बूंदी, आदि.
  2. भील - बाँसवाडा, डूंगरपुर, उदयपुर, सिरोही, चित्तौडगढ, भीलवाड़ा.
  3. गरासिया - सिरोही (सर्वाधिक) 
  4. सांसी - भरतपुर
  5. सहरिया -  बारां
  6. डामोर - डूंगरपुर, बाँसवाडा.
  7. कंजर - कोटा, बूंदी, झालावाड, भीलवाड़ा, अलवर, उदयपुर, अजमेर.
  8. कथौडी - उदयपुर 

   डामोर : -
Ø      बाँसवाड़ा और डूंगरपुर जिले की सीमलवाडा पंचायत समिति में निवास करती है.
Ø      मुखी  डामोर जनजाति की पंचायत का मुखिया
Ø      ये लोग अंधविश्वासी होते है.
Ø      ये लोग मांस और शराब के काफी शौक़ीन होते है.


      कथौडी 
Ø        यह जनजाति उदयपुर  जिले और दक्षिणी-पश्चिम राजस्थान में निवास करते है.
Ø        मुख्य व्यवसाय  खेर के वृक्षों से कत्था तैयार करना.

      कालबेलिया
Ø        मुख्य व्यवसाय  साँप पकडना है.
Ø        इस जनजाति के लोग सफेरे होते है.
Ø        ये साँप का खेल दिखाकर अपना पेट भरते है.
Ø        राजस्थान का कालबेलिया नृत्य यूनेस्को की विरासत सूची में (पारंपरिक छाऊ नृत्य )



साँसी 
Ø हाडौती क्षेत्र  जिले में निवास करती है.
यह एक खानाबदोश जीवन व्यतीत करने वाली जनजाति है.
Ø साँसी जनजाति की उत्पति सांसमल नामक व्यक्ति से मानी जाती है.
Ø विवाह  युवक-युवतियों के वैवाहिक संबंध उनके माता-पिता द्वारा किये जाते है. विवाह पूर्व यौन संबंध को अत्यन्त गंभीरता से लिया जाता है.
Ø सगाई  यह रस्म इनमे अनोखी होती है , जब दो खानाबदोश समूह संयोग से घूमते-घूमते एक स्थान पर मिल जाते है, तो सगाई हो जाती है.
Ø साँसी जनजाति को दो भागों में विभिक्त है à बीजा और माला .
इनमे होली और दिवाली के अवसर पर देवी माता के सम्मुख बकरों की बली दी जाती है.
ये लोग वृक्षों की पूजा करते है.
मांस और शराब इनका प्रिय भोजन है.
मांस में ये लोमड़ी और सांड का मांस पसन्द करते है.

सहरिया जनजाति


सहरिया 
Ø बारां जिले की किशनगंज तथा शाहाबाद तहसीलों में निवास करती है.
Ø सहराना  इनकी बस्ती को सहराना कहते है.
इनमे वधूमूल्य तथा बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन है.
ये लोग काली माता की पूजा करते है.
ये दुर्गा पूजा विशेष उत्साह के साथ करते है.
Ø कोतवाल  मुखिया को कोतवाल कहते है.
Ø ये लोग स्थानांतरित खेती करते है.
Ø ये लो जंगलो से जड़ी-बूटियों को एकत्रत कर विभिन्न प्रकार की दवाएं बनाने में दक्ष होते है.
ये राजस्थान की एकमात्र आदिम जनजाति है.
Ø सहरिया जनजाति राज्य की सर्वाधिक पिछड़ी जनजाति होने के कारण भारत सरकार ने राज्य की केवल इसी जनजाति को आदिम जनजाति समूह की सूची में रखा गया है.
Ø सहरिया शब्द की उत्पति सहर से हुई है जिसका अर्थ जगह होता है.
इस जनजाति के लोग जंगलो से कंदमूल एवं शहद एकत्रित कर अपनी जीविका चलाते है.
ये लोग मदिरा पान भी करते है.

गरासिया जनजाति


गरासिया à

गरासिया जनजाति अपने को चौहान राजपूतो का वंशज मानती है
ये लोग शिव दुर्गा और भैरव की पूजा करते है
Ø सिरोही, गोगुन्दा (उदयपुर), बाली(पाली), जिलो में निवास करती है.
Ø सोहरी  जिन कोठियों में गरासिया अपने अन्नाज का भंडारण करते है. उसे सोहरी कहते है.
Ø हूरें  व्यक्ति की मृत्यु होने पर स्मारक बनाते है.
Ø सहलोत  मुखिया को सहलोत कहते है.
Ø मोर बंधिया  विशेष प्रकार का विवाह जिसमे हिन्दुओ की भांति फेरे लिए जाते है.
Ø पहराबना विवाह  नाममात्र के फेरे लिए जाते है , इस विवाह में ब्राह्मण की आवश्यकता नही पडती है.
Ø ताणना विवाह  इसमें न सगाई के जाती है, न फेरे है . इस विवाह में वर पक्ष वाले कन्या पक्ष वाले को कन्या मूल्य वैवाहिक भेंट के रूप में प्रदान करता है.
इनमे सफेद रंग के पशुओं को पवित्र माना जाता है.

कंजर जनजाति


कंजर à
Ø कंजर शब्द की उत्पति काननचार/कनकचार से हुई है जिसका अर्थ है  जंगलो में विचरण करने वाला.
Ø झालावाड, बारां, कोटा ओर उदयपुर जिलो में रहती है.
Ø कंजर एक अपराध प्रवृति के लिए कुख्यात है.
Ø पटेल  कंजर जनजाति के मुखिया
Ø पाती माँगना ये अपराध करने से पूर्व इश्वर का आशीर्वाद लेते है.उसको पाती माँगना कहा जाता है.
Ø हाकम राजा का प्याला  ये हाकम राजा क प्याला पीकर  कभी झूठ नही बोलते है.
इन लोगो के घरों में भागने के लिए पीछे की तरफ खिडकी होती है परन्तु दरवाजे पर किवाड़ नही होते है.
ये लोग हनुमान और चौथ माता की पूजा करते है.

भील जनजाति


भील :
Ø कर्नल जेम्स टोड ने भीलों को वनपुत्र कहा था.
Ø भील शब्द की उत्पति बील से हुई है जिसका अर्थ है  कमान; है.
Ø सबसे प्राचीन जनजाति
Ø बासवाडा, डूंगरपुर, उदयपुर (सर्वाधिक), चित्तौड़गढ़ जिलो में निवास करती है.
Ø दूसरी सबसे बड़ी जनजाति
Ø प्रथाएँ
  • इस जनजाति के बड़े गाँव को पाल तथा छोटे गाँव को फला कहा जाता है.
  • पाल का नेता मुखिया या ग्रामपति कहलाता है.

Ø अटक किसी एक हि पूर्वज से उत्पन्न गौत्रो को भील जनजाति में अटक कहते है.
Ø कू  भीलों के घरों को कू कहा जाता है.
Ø टापरा - भीलों के घरों को टापरा भी कहते है.
Ø झूमटी(दाजिया) à आदिवासियों द्वारा मैदानी भागों को जलाकर जो कृषि की जाती उसे झूमटी कहते है.
Ø चिमाता à भीलों द्वारा पहाड़ी ढालों पर की जाने वाली कृषि को चिमाता कहते है.
Ø गमेती à भीलों के गाँवो के मुखिया को गमेती कहते है.
Ø भील केसरिनाथ के चढ़ी हुई केसर का पानी पीकर कभी झूट नहीं बोलते है.
Ø ठेपाडा à भील जनजाति के लोग जो तंग धोती पहनते है.
Ø पोत्या -> सफेद साफा जो सिर पर पहनते है.
Ø पिरिया à भील जाती में विवाह के अवसर पर दुल्हन जो पीले रंग का जो लहंगा पहनती है. लाल रंग की साड़ी को सिंदूरी कहा जाता है.
Ø भराड़ी  वैवाहिक अवसर पर जिस लोक देवी का भित्ति चित्र बनाया जाता है.
Ø फाइरे-फाइरे à भील जनजाति का रणघोष
Ø टोटम à भील जनजाति के लोग टोटम (कुलदेवता) की पूजा करते है.
ये लोग झूम कृषि भी करते है.

मीणा जनजाति


मीणा 
Ø मीणा का शाब्दिक अर्थ मछली है. मीणा मीन धातु से बना है.
Ø सबसे बड़ी जनजाति
Ø सबसे अधिक मीणा जयपुर(सर्वाधिक), सवाई माधोपुर, उदयपुर, आदि जिलो में निवास करती है.
Ø मीणा पुराण  रचियता आचार्य मुनि मगन सागर
Ø लोक देवी  जीणमाता (रैवासा, सीकर)
Ø नाता प्रथा  इस प्रथा में स्त्री अपने पति, बच्चो को छोड़कर दूसरे पुरष से विवाह कर लेती है.
मीणा जनजाति के मुख्यतदो वर्ग है - प्रथम वर्ग जमीदारो का है तथा द्वितीय वर्ग चौकीदारो का है .
मीणा जनजाति २४ खापो में विभाजित है.
मीणा जनजाति के बहिभाट को 'जागा' कहा जाता है.
मीणा जनजाति में संयुक्त परिवार प्रणाली पाई जाती है.
ये लोग मांसाहारी होते है.
इनका नेता - पटेल कहलाता है.
गाँव का पटेल पंच पटेल कहलाता है.
विवाह - राक्षस विवाह, ब्रह्मा विवाह, गांधर्व विवाह
ये लोग दुर्गा माता और शिवजी की पूजा करते है.

राजस्थान के लोकवाद्य

मानव जीवन संगीत से हमेशा से जुड़ा रहा है। संगीत मानव के विकास के साथ पग-पग पर उपस्थित रहा है। विषण्ण ह्मदय को आह्मलादित एवं निराश मन को प्रतिपल प्रफुल्लित रखने वाले संगीत का अविभाज्य अंग है- विविध-वाद्य यंत्र। इन वाद्यों ने संगीत की प्रभावोत्पादकता को परिवर्धित किया और उसकी संगीतिकता में चार चाँद लगाए हैं। भांति-भाँति के वाद्ययंत्रों के सहयोगी स्वर से संगीत की आर्कषण शक्ति भी विवर्किद्धत हो जाती है।
भारतीय संगीत में मारवाड़ में मारवाड़ के विविध पारंपरिक लोक-वाद्य अपना अनूठा स्थान रखते हैं। मधुरता, सरसता एवं विविधता के कारण आज इन वाद्यों ने राष्ट्रीय ही नहीं, अपितु अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान कायम की है। कोई भी संगीत का राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय समारोह या महोत्सव ऐसा नहीं हुआ, जिसमें मरु प्रदेश के इन लोकवाद्यों को प्रतिनिधत्व न मिला है।
मारवाडी लोक-वाद्यों को संगीत की दृष्टि से पॉच भागों में विभाजित किया जा सकता है- यथातत, बितत, सुषिर, अनुब व धन। ताथ वाद्यों में दो प्रकार के वाद्य आते हैं- अनुब व धन।
अनुब में चमडे से मढे वे वाद्य आते हैं, जो डंडे के आधात से बजते हैं। इनमें नगाडा, घूंसा, ढोल, बंब, चंग आदि मुख्य हैं।
लोहा, पीतल व कांसे के बने वाधों को धन वाध कहा जाता है, जिनमें झांझ, मजीरा, करताल, मोरचंगण श्रीमंडल आदि प्रमुख हैं।
तार के वाधों में भी दो भेद हैं- तत और वितत। तत वाद्यों में तार वाले वे साज आते हैं, जो अंगुलियों या मिजराब से बजाते हैं। इनमें जंतर, रवाज, सुरमंडल, चौतारा व इकतारा है। वितत में गज से बजने वाले वाद्य सारंगी, सुकिंरदा, रावणहत्था, चिकारा आदि प्रमुख हैं। सुषिर वाद्यों में फूंक से बजने वाले वाद्य, यथा-सतारा, मुरली, अलगोजा, बांकिया, नागफणी आदि।

उपरोक्त वाद्यों का संक्षिप्त परिचयात्मक विवरण इस प्रकार है-

ताल वाद्य - राजस्थान के ताल वाद्यों में अनुब वाद्यों की बनावट तीन प्रकार की है यथा -
  • वाद्य जिसके एक तरु खाल मढी जाती है तथा दूसरी ओर का भाग खुला रहता है। इन वाद्यों में खंजरी, चंग, डफ आदि प्रमुख हैं।
  • वे वाद्य जिनका घेरा लकडी या लोहे की चादर का बना होता है एवं इनके दाऍ-बाऍ भाग खाल से मढे जाते हैं। जैसे मादल, ढोल, डेरु डमरु आदि।
  • वे वाद्य जिनका ऊपरी भाग खाल से मढा जाता है तथा कटोरीनुमा नीचे का भाग बंद रहता है। इनमें नगाडा, धूंसौं, दमामा, माटा आदि वाद्य आते हैं। इन वाद्यों की बनावट वादन पद्वदि इस प्रकार है -
  • कमटटामक बंब - इसका आकार लोहे की बड़ी कङाही जैसा होता है, जो लोहे की पटियों को जोङ्कर बनाया जाता है। इसका ऊपरी भाग भैंस के चमड़े से मढा जाता है। खाल को चमड़े की तांतों से खींचकर पेंदे में लगी गोल गिङ्गिड़ी लोहे का गोल घेरा से कसा जाता है। अनुब व घन वाद्यों में यह सबसे बडा व भारी होता है। प्राचीन काल में यह रणक्षेत्र एवं दुर्ग की प्राचीर पर बजाया जाता था। इसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले लिए लकड़ी के छोटे गाडूलिए का उपयोग किया जाता है। इसे बजाने के लिए वादक लकड़ी के दो डंडे का प्रयोग करते हैं। वर्तमान में इसका प्रचलन लगभग समाप्त हो गया है। इसके वादन के साथ नृत्य व गायन दोनों होते हैं।
  • कुंडी - यह आदिवासी जनजाति का प्रिय वाद्य है, जो पाली, सिरोही एवं मेवा के आदिवासी क्षेत्रों में बजाया जाता है। मिट्टी के छोटे पात्र के उपरी भाग पर बकरे की खाल मढी रहती है। इसका ऊपरी भाग चार-छः इंच तक होता है। कुंडी के उपरी भाग पर एक रस्सी या चमड़े की पटटी लगी रहती है, जिसे वादक गले में डालकर खड़ा होकर बजाता है। वादन के लिए लकड़ी के दो छोटे गुटकों का प्रयोग किया जाता है। आदिवासी नृत्यों के साथ इसका वादन होता है।
  • खंजरी - लकड़ी का छोटा-सा घेरा जिसके एक ओर खाल मढ़ी रहती है। एक हाथ में घेरा तथा दूसरे हाथ से वादन किया जाता है। केवल अंगुलियों और हथेली का भाग काम में लिया जाता है। घेरे पर मढी खाल गोह या बकरी की होती है। कालबेलिया जोगी, गायन व नृत्य में इसका प्रयोग करते हैं। वाद्य के घेरे बडे-छोटे भी होते है। घेरे पर झांझों को भी लगाया जाता है।
  • चंग - एक लकड़ी का गोल घेरा, जो भे या बकरी की खाल से मढ़ा जाता है। एक हाथ में घेरे को थामा जाता है, दूसरे खुले हाथ से बजाया जाता है। थामने वाले हाथ का प्रयोग भी वादन में होता है। एक हाथ से घेरे के किनारे पर तथा दूसरे से मध्यभाग में आघात किया जाता है। इस वाद्य को समान्यतः होलिकोत्सव पर बजाया जाता है।
  • डमरु - यह मुख्य रुप से मदारियों व जादूगरों द्वारा बजाया जाता है। डमरु के मध्य भाग में डोरी बंघी रहती है, जिसके दोनो किनारों पर पत्थर के छोटे टुकड़े बंधे रहते हैं। कलाई के संचालन से ये टुकड़े डमरु के दोनो ओर मढ़ी खाल पर आघात करते हैं।
  •  - लोहे के गोल घेरे पर बकरे की खाल चढी रहती है। यह खाल घेरे पर मढ़ी नहीं जाती, बल्कि चमड़े की बद्धियों से नीचे की तरफ कसी रहती है। इसका वादन चंग की तरफ होता है। अंतर केवल इतना होता है कि चमडे की बद्धियों को ढ़ील व तनाव देकर ऊँचा-नीचा किया जा सकता है।
  • डेरु - यह बङा उमरु जैसा वाद्य है। इसके दोनों ओर चमङा मढ़ा रहता है, जो खोल से काफी ऊपर मेंडल से जुङा रहता है। यह एक पतली और मुड़ी हुई लकड़ी से बजाया जाता है। इस पर एक ही हाथ से आघात किया जाता है तथा दूसरे हाथ से डोरी को दबाकर खाल को कसा या ढीला किया जाता है। इस वाद्य का चुरु, बीकानेर तथा नागौर में अधिक प्रचलन है। मुख्य रुप से माताजी, भैरु जी व गेगा जी की स्तुति पर यह गायी जाती है।
  • ढाक - यह भी डमरु और डेरु से मिलता-जुलता वाद्य है, लेकिन गोलाई व लंबाई डेरु से अधिक होती है। मुख्य रुप से यह वाद्य गु जाति द्वारा गोढां (बगङावतों की लोककथा) गाते समय बजाया जाता है। झालावाङा, कोटा व बूँदी में इस वाद्य का अधिक प्रचलन है। वादक बैठकर दोनो पैरों के पंजो पर रखकर एक भाग पतली डंडी द्वारा तथा दूसरा भाग हाथ की थाप से बजाते है।
  • ढ़ोल - इसका धेरा लोहे की सीघी व पतली परतों को आपस में जोङ्कर बनाया जाता है। परतों (पट्टियों) को आपस में जोङ्ने के लिये लोहे व तांबे की कीलें एक के बाद एक लगाई जाती है। धेरे के दोनो मुँह बकरे की खाल से ढ़के जाते हैं। मढ़े हुए चमड़े को कसरन के लिए डोरी का प्रयोग किया जाता है। ढोल को चढ़ाने और उतारने के लिए डोरी में लोहे या पीतल के छल्ले लगे रहते हैं। ढोल का नर भाग डंडे से तथा मादा भाग हाथ से बजाया जाता है। यह वाद्य संपूर्ण राजस्थान में त्योहार व मांगलिक अवसरों पर बजाया जाता है। राजस्थान में ढोली, मिरासी, सरगरा आदि जातियों के लोग ढोल बजाने का कार्य करते हैं। ढोल विभित्र अवसरों पर अलग-अलग ढंग से बजाया जाता है, यथा- कटक या बाहरु ढोल, घोङ्चिड़ी रौ ढोल, खुङ्का रौ ढोल आदि।
  • ढोलक - यह आम, बीजा, शीशम, सागौन और नीम की लकड़ी से बनता है। लकड़ी को पोला करके दोनों मुखों पर बकरे की खाल डोरियों से कसी रहती है। डोरी में छल्ले रहते हैं, जो ढोलक का स्वर मिलाने में काम आते हैं। यह गायन व नृत्य के साथ बजायी जाती है। यह एक प्रमुख लय वाद्य है।
  • तासा - तासा लोहे या मिट्टी की परात के आकार का होता है। इस पर बकरे की खाल मढ़ी जाती है, जो चमड़े की पटिटयों से कसी रहती है। गले में लटका कर दो पहली लकड़ी की चपटियों से इसे बजाया जाता है।
  • धूंसौ - इसका घेरा आम व फरास की लकड़ी से बनता है। प्राचीन समय में रणक्षेत्र के वाद्य समूह में इसका वादन किया जाता था। कहीं-कहीं बडे-बडे मंदिरों में भी इकसा वादन होता है। इसका ऊपरी भाग भैंस की खाल से मढ. दिया जाता है। इसकों लकड़ी के दो बडे-डंडे से बजाया जाता है।
  • नगाङा - समान प्रकार के दो लोहे के बड़े कटोरे, जिनका ऊपरी भाग भैंस की खाल से मढा जाता है। प्राचीन काल में घोड़े, हाथी या ऊँट पर रख कर राजा की सवारी के आगे बजाया जाता था। यह मुख्य-मुख्य से मंदिरों में बजने वाला वाद्य है। इन पर लकड़ी के दो डंडों से आघात करके ध्वनि उत्पत्र करते हैं।
  • नटों की ढोलक - बेलनाकृत काष्ठ की खोल पर मढा हुआ वाद्य। नट व मादा की पुडियों को दो मोटे डंडे से आधातित किया जाता है। कभी-कभी मादा के लिए हाथ तथा नर के लिए डंडे का प्रयोग किया जात है, जो वक्रता लिए होता है। इसके साथ मुख्यतः बांकिया का वादन भी होता है।
  • पाबूजी के मोटे - मिट्टी के दो बड़े मटकों के मुंह पर चमङा चढाया जाता है। चमड़े को मटके के मुँह की किनारी से चिपकाकर ऊपर डोरी बांध दी जाती है। दोनों माटों को अलग-अलग व्यक्ति बजाते हैं। दोनों माटों में एक नर व एक मादा होता है, तदनुसार दोनों के स्वर भी अलग होते हैं। माटों पर पाबूजी व माता जी के पावड़े गाए जाते है। इनका वादन हथेली व अंगुलियों से किया जाता है। मुख्य रुप से यह वाद्य जयपुर, बीकानेर व नागौर क्षेत्र में बजाया जाता है।
  • भीलों की मादल - मिट्टी का बेलनाकार घेरा, जो कुम्हारों द्वारा बनाया जाता है। घेरे के दोनो मुखों पर हिरण या बकरें की खाल चढाई जाती है। खाल को घेरे से चिपकाकर डोरी से कस दी जाती है, इसमें छल्ले नही लगते। इसका एक भाग हाथ से व दूसरा भाग डंडे से बजाया जाता है। यह वाद्य भील व गरासिया आदिवासी जातियों द्वारा गायन, नृत्य व गवरी लोकनाट्य के साथ बजाया जाता है।
  • रावलों की मादल - काष्ठ खोलकर मढा हुआ वाद्य। राजस्थानी लोकवाद्यों में यही एक ऐसा वाद्य है, जिसपर पखावज की भांति गट्टों का प्रयोग होता है। दोनों ओर की चमड़े की पुङ्यों पर आटा लगाकर, स्वर मिलाया जाता है। नर व मादा भाग हाथ से बजाए जाते हैं। यह वाद्य केवल चारणों के रावल (चाचक) के पास उपलब्ध है।
धन वाद्य - यह वाद्य प्रायः ताल के लिए प्रयोग किए जाते हैं। प्रमुख वाद्यों की बनावट व आकार-प्रकार इस प्रकार है -
  • करताल - आयताकार लकड़ी के बीच में झांझों का फंसाया जाता है। हाथ के अंगूठे में एक तथा अन्य अंगुलियों के साथ पकड़ लिया जाता है और इन्हें परस्पर आधारित करके लय रुपों में बजाया जाता है। मुख्य रुप से भक्ति एवं धार्मिक संगीत में बजाया जाता है। मुख्य रुप से भक्ति एवं धार्मिक संगीत में इसका प्रयोग होता है।
  •       खङ्ताल - शीशम, रोहिङा या खैर की लकड़ी के चार अंगुल चौड़े दस अंगुल लंबे चिकने व पतले चार टुकड़े। यह दोनो हाथों से बजायी जाती है तथा एक हाथ में दो अफकड़े रहते हैं। इसके वादन में कट-कट की ध्वनी निकलती है। लयात्मक धन वाद्य जो मुख्य रुप से जोधपुर, बाडमेंर व जैसलमेंर क्षेत्रों में मांगणयार लंगा जाति के लोग बजाते हैं।
  •      धुरालियो - बांस की आठ-दस अंगुल लंबी व पतली खपच्ची का बना वाद्य। बजाते समय बॉस की खपच्ची को सावधानी पूर्वक छीलकर बीच के पतले भाग से जीभी निकाली जाती है। जीभी के पिछले भाग पर धागा बंधा रहता है। जीभी को दांतों के बीच रखकर मुखरंध्र से वायु देते हुए दूसरे हाथ से धागे को तनाव व ढील (धीरे-धीरे झटके) द्वारा ध्वनि उत्पत्र की जाती है। यहा वाद्य कालबेलिया तथा गरेसिया जाति द्वारा बजाया जाने वाला वाद्य यंत्र है।
  •     झालर - यह मोटी घंटा धातु की गोल थाली सी होती है। इसे डंडे से आघादित किया जाता है। यह आरती के समय मंदिरों में बजाई जाती है।
  •      झांझ - कांसे, तांबे व जस्ते के मिश्रण से बने दो चक्राकार चपटे टुकङों के मध्य भाग में छेद होता है। मध्य भाग के गड्डे के छेद में छोरी लगी रहती है। डोरी में लगे कपड़े के गुटको को हाथ में पकङ्कर परस्पर आधातित करके वादन किया जाता है। यह गायन व नृत्य के साथ बजायी जाती है।
  •      मंजीरा - दो छोटी गहरी गोल मिश्रित धतु की बनी पट्टियॉ। इनका मध्य भाग प्याली के आकार का होता है। मध्य भाग के गड्ढे के छेद में डोरी लगी रहती है। ये दोनों हाथ से बजाए जाते हैं, दोनों हाथ में एक-एक मंजीरा रहता है। परस्पर आघात करने पर ध्वनि निकलती है। मुख्य रुप से भक्ति एवं धर्मिक संगीत में इसका प्रयोग होता है। काम जाति की महिलाएँ मंजीरों की ताल व लय के साथ तेरह ताल जोडती है।
  •      श्री मंडल - कांसे के आठ या दस गोलाकार चपटे टुकङों। रस्सी द्वारा यह टुकड़े अलग-अलग समानान्तर लकडी के स्टैण्ड पर बंधे होते हैं। श्रीमंडल के सभी टुकडे के स्वर अलग-अलग होते हैं। पतली लकड़ी को दो डंडी से आघात करके वादन किया जाता है। राजस्थानी लोक वाद्यों में इसे जलतरंग कहा जा सकता है।
  •      मोरचंग - लोहे के फ्रेम में पक्के लाहे की जीभी होती है। दांतों के बीच दबाकर, मुखरंध्र से वायु देते हुए जीभी को अंगुली से आघादित करते हैं। वादन से लयात्मक स्वर निकलते हैं। यह वाद्य चरवाहों, घुमक्कङों एवं आदिवासियों में विशेष रुप से प्रचलित वाद्य है।
  •      भपंग - तूंबे के पैंदे पर पतली खाल मढी रहती है। खाल के मध्य में छेद करके तांत का तार निकाला जाता है। तांत के ऊपरी सिरे पर लकड़ी का गुटका लगता है। तांबे को बायीं बगल में दबाकर, तार को बाएँ हाथ से तनाव देते हुए दाहिने हाथ की नखवी से प्रहार करने पर लयात्मक ध्वनि निकलती है।
  •      भैरु जी के घुंघरु - बड़े गोलाकार घुंघरु, जो चमड़े की पट्टी पर बंधे रहते हैं। यह पट्टी कमर पर बाँधी जाती है। राजस्थान में इसका प्रयोग भैरु जी के भोपों द्वारा होता है, जो कमर को हिलाकर इन घुंघरुओं से अनुरंजित ध्वनि निकालते हैं तथा साथ में गाते हैं।
  • सुषिर वाद्य - राजस्थान में सुषिर वाद्य काष्ठ व पीतल के बने होते हैं। जिसमें प्रमुख वाद्यों का परिचयात्मक विवरण इस प्रकार है -
  •      अलगोजा - बांस के दस-बारह अंगुल लंबे टुकड़े, जिनके निचले सिरे पर चार छेद होते हैं। दोनों बांसुरियों को मुंह में लेकर दोनों हाथों से बजाई जाती है, एक हाथ में एक-एक बांसुरी रहती है। दोनों बांसुरियों के तीन छेदों पर अंगुलियाँ रहती हैं। यह वाद्य चारवाहों द्वारा कोटा, बूंदी, भरतपुर व अलवर क्षेत्रों में बजाया जाता है।
  •    करणा - पीतल का बना दस-बारह फुट लंबा वाद्य, जो प्राचीन काल में विजय घोष में प्रयुक्त होता था। कुछ मंदिरों में भी इसका वादन होता है। पिछले भाग से होंठ लगाकर फूँक देने पर घ्वनि निकलती है। जोधपरु के मेहरानगढ़ संग्रहालय में रखा करणा वाद्य सर्वाधिक लंबा है।
  •    तुरही - पीतल का बना आठ-दस फुट लंबा वाद्य, जिसका मुख छोटा व आकृति नोंकदार होती है। होंठ लगाकर फुँकने पर तीखी ध्वनि निकलती है। प्राचीन काल में दुर्ग एवं युद्व स्थलों में इसका वादन होता था।
  •   नड़ - कगोर की लगभग एक मीटर लंबी पोली लकड़ी, जिसके निचले सिरे पर चार छेद होते हैं। इसका वादन काफी कठिन है। वादक लंबी सांस खींखकर फेफङों में भरता है, बाद में न में फूँककर इसका वादन होता है। फूँक ठीक उसी प्राकर दी जाती है, जिस प्रकार कांच की शीशी बजायी जाती है। वादन के साथ गायन भी किया जाता है। वा वाद्य जैसलमेर में मुख्य रुप से बजाया जाता है।
  •   नागफणी - सर्पाकार पीतल का सुषिर वाद्य। वाद्य के मुंह पर होठों द्वारा ताकत से फूँक देने पर इसका वादन होता है। साधुओं का यह एक धार्मिक वाद्य है तथा इसमें से घोरात्मक ध्वनि निकलती है।
  •   पूंगी/बीण - तांबे के निचले भाग में बाँस या लकड़ी की दो जड़ी हुई नलियाँ लगी रहती हैं। दोनो नलियों में सरकंडे के पत्ते की रीठ लगाई जाती है। तांबे के ऊपरी सिरे को होठों के बीच रखकर फूँक द्वारा अनुध्वनित किया जाता है।
  •   बांकिया - पीतल का बना तुरही जैसा ही वाद्य, लेकिन इसका अग्र भाग गोल फाबेदार है। होठों के बीच रखरकर फूंक देने पर तुड-तुड ध्वनि निकलती है। यह वाद्य मांगलिक पर्वो पर बजाया जाता है। इसमें स्वरों की संख्या सीमित होती है।
  • मयंक - एक बकरे की संपूर्ण खाल से बना वाद्य, जिसके दो तरु छेद रहते हैं। एक छेद पर नली लगी रहती है, वादक उसे मुंह में लेकर आवश्यकतानुसार हवा भरता है। दूसरे भाग पर दस-बारह अंगुल लंबी लकड़ी की चपटी नली होती है। नली के ऊपरी भाग पर छः तथा नीचे एक छेद होता है। बगल में लेकर धीरे-धीर दबाने से इसका वादन होता है। जोगी जाति के लोग इस पर भजन व कथा गाते हैं।
  •     मुरला/मुरली - दो नालियों को एक लंबित तंबू में लगाकर लगातार स्वांस वादित इस वाद्य यंत्र के तीन भेद हैं: - आगौर, मानसुरी और टांकी। छोटी व पतली तूंबी पर निर्मित टांकी मुरला या मुरली कहलाती है। श्रीकरीम व अल्लादीन लंगा, इस वाद्य के ख्याति प्राप्त कलाकार हैं। बाड़में क्षेत्र में इस वाद्य का अधिक प्रचलन है। इस पर देशी राग-रागनियों की विभिन्न धुने बजायी जाती है।
  •      सतारा - दो बांसुरियों को एक साथ निरंतर स्वांस प्रक्रिया द्वारा बजाया जाता है। एक बांसुरी केवल श्रुति के लिए तथा दूसरी को स्वरात्मक रचना के लिए काम में लिया जाता है। फिर घी ऊब सूख लकड़ी में छेद करके इसे तैयार किया जाता है। दोनों बांसुरियों एक सी लंबाई होने पर पाबा जोड़ी, एक लंबी और एक छोटी होने पर डोढ़ा जोङा एवं अलगोजा नाम से भी जाना जाता है। यह पूर्ण संगीत वाद्य है तथा मुख्य रुप से चरवाहों द्वारा इसका वादन होता है। यह वाद्य मुख्यतया जोधपुर तथा बाड़मेर में बजाया जाता है।
  •     सिंगा - सींग के आकार का पीपत की चछर का बना वाद्य। पिछले भाग में होंठ लगाकर फूँक देने पर बजता है। वस्तुतः यह सींग की अनुक्रम पर बना वाद्य है, जिसका वादन जोगी व साधुओं द्वारा किया जाता है।
  •    सुरगाई-सुरनाई - दीरी का यह वाद्य ऊपर से पहला व आगे से फाबेदार होता है। इसके अनेक रुप राजस्थान मे मिलते हैं। आदिवासी क्षेत्रों में लक्का व अन्य क्षेत्रों में नफीरी व टोटो भी होते हैं। इसपर खजूर या सरकंडे की पत्ती की रीढ लगाई जाती है। जिसे होंठों के बीच रखकर फूँक द्वारा

राजस्थान की खनिज संपदा

   
1. फ्लोराइट खनिज के उत्पादन में राजस्थान का देश में कौनसा स्थान है।
Ans:- प्रथम
2. राजस्थान में जावर की खान किस जिले में है ? (RAS-94, 95, 99, RPSC 3rd Gr.- 04 )
Ans:- उदयपुर
3. अलौह खनिज की दृष्टि से राजस्थान का देश में कौनसा स्थान है।
Ans:- प्रथम
4. लौह खनिज की दृष्टि से राजस्थान का देश में कौनसा स्थान है।
Ans:- चौथा
5. अभ्रक व तांबा उत्पादन में राजस्थान का कौनसा स्थान है।
Ans:- दूसरा
6. राजस्थान में ताम्बे के विशाल भंडार है ? (RAS- 93,99, Police-07)
Ans:- खेतड़ी में (झुन्झुनू जिला)
7. राजस्थान में गुलाबी रंग का ग्रेनाइट कहां पर पाया जाता है।
Ans:- जालौर
8. राजस्थान में फैल्सपार कहां पाया जाता है।
Ans:- अजमेर(ब्यावर) व भीलवाड़ा
9. सुपर जिंक समेल्टर संयत्र (ब्रिटेन के सहयोग से) कहां पर स्थापित किया गया है।
Ans:- चंदेरिया(चित्तौड़गढ़)
10. राजस्थान में सोना कहां पर पाया जाता है। (RAS 98)
Ans:- बांसवाड़ा व डूंगरपुर
11. हीरा राजस्थान में कहां पाया जाता है।
Ans:- केसरपुरा (चित्तौड़गढ़)
12. राजस्थान में जेम स्टोन औद्योगिक पार्क किस जिले में स्थित है।
Ans:- जयपुर
13. जिप्सम राजस्थान में सर्वाधिक कहां पर पाया जाता है। (E.O.-2008)
Ans:- नागौर ( गोट-मांगलोद) में
14. राजस्थान में चांदी की खान कहां पर स्थित है।
Ans:- जावर (उदयपुर), रामपुरा-आंगुचा (भीलवाड़ा)
15. मैंगनीज राजस्थान के किस जिलों में पाया जाता है। (E.O.-2008)
Ans:- बांसवाड़ा व उदयपुर
16. वरमीक्यूलाइट राजस्थान में कहां पर पाया जाता है।
Ans:- अजमेर
17. अभ्रक राजस्थान में सर्वाधिक कहां पर पाया जाता है। (RPSC Tea. 2007)
Ans:- भीलवाड़ा व उदयपुर
18. राजस्थान में वोलस्टोनाइट कहां पाया जाता है।
Ans:- सिरोही व डूंगरपुर
19. यूरेनियम राजस्थान में कहां पर पाया जाता है।
Ans:- उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा व सीकर

20. राजस्थान में मैग्नेसाइट कहां पर उत्पादित किया जाता है।
Ans:- अजमेर
21. सीसा-जस्ता उत्पादन में राजस्थान का देश में कौनसा स्थान है। (RAS -03)
Ans:- प्रथम
22. मुल्तानी मिट्टी राजस्थान में कहां पाई जाती है।
Ans:- बीकानेर व बाड़मेर
23. पाइराइट्स राजस्थान में सर्वाधिक कहां पाया जाता है।
Ans:- सलादीपुर (सीकर)
24. घीया पत्थर राजस्थान में कहां पाया जाता है।
Ans:- भीलवाड़ा व उदयपुर
25. वह खनिज जो मिट्टी की क्षारियता दूर करने के काम आता है, कौनसा है ? (RPSC 3rd Gr.- 09)
Ans:- जिप्सम
26. राजस्थान में कैल्साइट कहां पाया जाता है।
Ans:- सीकर व उदयपुर
27. राजस्थान में बेराइट्स के विशाल भंडार कहां पाये गए हैं ?
Ans:- जगतपुर (उदयपुर)
28. खनन क्षेत्रों से प्राप्त आय की दृष्टि से राजस्थान का देश में कौनसा स्थान है ?
Ans:- पांचवा स्थान
29. हरी अग्नि के नाम से जाना जाता है।
Ans:- पन्ना
30. रॉक फास्फेट के राजस्थान के किन जिलों में पाया जाता है ? (RAS-89, 99, RPSC 3rd Gr.- 04 )
Ans:- झामर कोटड़ा (उदयपुर) व बिरमानियां (जैसलमेर) और बांसवाडा

राजस्थान के खनिज

1 . खनिजों का अजायबघर किस राज्य को कहा जाता है।   
 - राजस्थान
2  . फ्लोराइट खनिज के उत्पादन में राजस्थान का देश में कौनसा स्थान है।  
- प्रथम

3 . अलौह खनिज की दृष्टि से राजस्थान का देश में कौनसा स्थान है।

- प्रथम

4 . लौह खनिज की दृष्टि से राजस्थान का देश में कौनसा स्थान है।
- चौथा

5  . राजस्थान में गुलाबी रंग का ग्रेनाइट कहां पर पाया जाता है।

- जालौर

6  . हरी अग्नि के नाम से जाना जाता है।

- पन्ना

7  . राजस्थान में फैल्सपारकहां पाया जाता है।
- अजमेर(ब्यावर) व भीलवाड़ा
8  . सुपर जिंक समेल्टर संयत्र (ब्रिटेन के सहयोग से) कहां पर स्थापित किया गया है।- चंदेरिया(चित्तौड़गढ़)9  . राजस्थान में सोना कहां पर पाया जाता है।- बांसवाड़ा व डूंगरपुर10  . हीरा राजस्थान में कहां पाया जाता है।- केसरपुरा (चित्तौड़गढ़)11  . देश में नमक उत्पादन की दृष्टि से राजस्थान कौनसेस्थान पर है।- चौथा12  . राजस्थान में जेम स्टोन औद्योगिक पार्क किसजिले में स्थित है।- जयपुर
13  . राजस्थान में सर्वाधिकऔद्योगिक इकाइयां किस जिले में स्थापित हैं।

- जयपुर

14  . राजस्थान में शून्य उद्योग जिले कौनसे हैं।

- जैसलमेर, बाड़मेर, चूरू व सिरोही
15  . जिप्सम राजस्थान में सर्वाधिक कहां पर पाया जाता है।
- नागौर16  . राजस्थान में चांदी की खान कहां पर स्थित है।- जावर (उदयपुर), रामपुरा-आंगुचा (भीलवाड़ा)17  . मैंगनीज राजस्थान के किस जिलों में पाया जाता है।- बांसवाड़ा व उदयपुर18  . वरमीक्यूलाइट राजस्थान में कहां पर पाया जाता है।- अजमेर19  . राजस्थान में मैग्नेसाइट कहां पर उत्पादित किया जाता है।- अजमेर
20  . राजस्थान में वोलस्टोनाइट कहां पाया जाता है।

- सिरोही व डूंगरपुर

21  . यूरेनियम राजस्थान मेंकहां पर पाया जाता है।

- उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा व सीकर
22  . अभ्रक राजस्थान में सर्वाधिक कहां पर पाया जाता है।
- भीलवाड़ा व उदयपुर23  . सीसा-जस्ता उत्पादन में राजस्थान का देश में कौनसा स्थान है।- प्रथम24  . रॉक फास्फेट के राजस्थान में प्रमुख स्थान कौनसे हैं।- झामर कोटड़ा (उदयपुर) व बिरमानियां (जैसलमेर)25  . मुल्तानी मिट्टी राजस्थान में कहां पाई जाती है।- बीकानेर व बाड़मेर26  . पाइराइट्स राजस्थान में सर्वाधिक कहां पाया जाता है।- सलादीपुर (सीकर)27  . राजस्थान में बेराइट्सके विशाल भंडार कहां पाये गए हैं।- जगतपुर (उदयपुर)28  . घीया पत्थर राजस्थान में कहां पाया जाता है।- भीलवाड़ा व उदयपुर29  . राजस्थान में कैल्साइटकहां पाया जाता है।
- सीकर व उदयपुर
30.   भारत का प्रथम तेल शोधन संयंत्र कहां पर स्थित है।
- डिग्बोई (असोम)